बहन स्वर्गीय शकुन्तला जैन की 30वीं पुण्यतिथि
बहन स्वर्गीय शकुन्तला जैन की दिनांक 31 जनवरी 2015 को 30वीं पुण्यतिथि के
अवसर पर परिवार के सभी सदस्य भाव-विभोर होकर श्रद्धासुमन अर्पित करते
हैं. जो हमारे लिए सदास्मणीय और प्रेरणास्त्रोत है. हम उनके दिखाए
मार्गदर्शन पर चलते हुए कार्य करते रहेंगे. शकुन्तला प्रेस ऑफ़ इंडिया
प्रकाशन ब्लॉग और शकुन्तला एडवरटाईजिंग एजेंसी, शकुन्तला महिला कल्याण
कोष, शकुन्तला इंटरप्राइज, शकुन्तला प्रेस ऑफ़ इंडिया प्रकाशन परिवार द्वारा प्रकाशित समाचार पत्र / पत्रिका बहन स्वर्गीय शकुन्तला जैन को समर्पित है.
जाने मेरी फर्मों का नाम "शकुंतला" ही क्यों है ?
( मन की बात )
जब मेरी सबसे बड़ी दीदी शकुन्तला जैन (जिसे मैं बहुत प्यार करता था) की
सन् 1985 में सुसराल पक्ष वालों ने हत्या कर दी थी। तब ‘रिश्वत’ ही एक ऐसा
शब्द था। जिससे हमारा परिवार अवगत नहीं था। हमारे पास इतना पैसा भी नहीं था
कि उन (सुसराल पक्ष वालों) से अधिक "रिश्वत" देकर केस अपने हक में करा
लेते। हम किस राजनीतिक के पास नहीं गये। केवल आश्वासन देने के अलावा किसी
भी राजनीतिक ने हमारी कोई मदद नहीं की। पहले इतना "मीडिया" भी सक्रिय नहीं
था। जोकि उसकी किसी प्रकार की मदद ले लेते। दिल्ली पुलिस ने सुसराल पक्ष से
‘रिश्वत’ लेकर मेरे अनपढ़ माता-पिता से कोरे कागज पर हस्ताक्षर करा लिये
थें। उन पर मनमर्जी की बयान दर्ज करके केस को इतना हल्का कर दिया। उसमें
कुछ दम नहीं रहा। डाक्टरों ने ‘रिश्वत’ लेकर पोस्टमार्टम की रिर्पोट में
‘आत्महत्या’ लिखकर दोषियों का पूरा साथ दिया था। उन दिनों मेरी आयु लगभग नौ
वर्ष की रही होगी।
हमारे देश की यह बदनसीबी है कि यहां पर हर तरफ
भ्रष्टाचार ने अपनी जडे़ जमा ली है। गरीबों की सुनने वाला कोई नहीं हैं। एक
गरीब कहां से इतने सारे रुपये लाये कि वकीलों की मोटी-मोटी फीस देने के
साथ ही पुलिस का मुंह नोटों से भर सकें और जजों को भी खरीदकर अपने पक्ष में
निर्णय करवा ले। मैंने लगभग दस वर्ष की आयु में खुली आंखों से ऐसे अनेकों
सपने देखें। जो किसी को बताता तो शायद मुझे पागल ही कहता। मगर मैंने उन
सपनों को पूरा करने के लिए परिश्रम करना शुरू कर दिया था। मुझे पत्रकारिता
के अपने मात्र दो साल के छोटे से कार्यकाल में कुछ ऐसे कटु अनुभव हुए। जिन
पर कभी (अवसर मिलने पर) आपके साथ विस्तार से चर्चा करूंगा। जिससे मेरा मन
पत्रकरिता से विचलित होने लगा। मेरे पास स्वंय के कमाए मात्रा कुछ ही रुपये
थें। जो अपनी युवावस्था की अनेक इच्छाओं की मारकर जमा किये थे। लेकिन समझ
नहीं आ रहा था। उन्हें खर्च करूं तो कैसे और ऐसे कौन से कार्य में लगाऊं।
जहां पर यह बहुमूल्य बनकर देश व समाज का हित कर सके, क्योंकि मैंने कभी न
घर से पहले आर्थिक सहायता ली, न अब लेता है बस अपने माता-पिता का आर्शीवाद
लेता हूं और उन्होंने मेरा इतने अच्छे संस्कारों से मेरा पालन-पोषण किया।
क्या मेरे लिए इतना ही काफी नहीं है? तब एक दिन मेरी दीदी शकुन्तला सपने में आई और
कहने लगी कि-मेरे भाई, तू अपना समाचार पत्र-पत्रिका शुरू करके सच लिखना।
मेरे अनेक तर्क-वितर्क करने पर कहने लगी कि-माना मुझे ‘रिश्वत’ के कारण
इंसाफ नहीं मिला। लेकिन कम से कम तुम अपने पत्र-पत्रिका के द्वारा उन
गरीबों की मदद कर सकेगा। जो‘ रिश्वत’ देने में सक्षम नहीं होते हैं। इसलिए
मुझे आज हर ‘रिश्वत’ लेने वाला व्यक्ति अपनी दीदी का ‘हत्यारा’ नजर आता है।
बस उसी दिन मैंने ठान लिया था कि-पत्रकरिता को कभी कमाने का माध्यम नहीं
बनूंगा। बल्कि देश व समाजहित में लिखते हुए सेवा करूंगा और भविष्य में अपने
प्राण भी न्यौछावर कर दूंगा।
मगर मै डर रहा था कि आज के समय में
समाचार पत्र-पत्रिका का निकालना कितना कठिन होता है, क्योंकि प्रकाशन जैसा
कार्य पूंजीपति या राजनीतिकों से संबंध रखने वाले ही कर सकते हैं। ऐसा अन्य
लोगों और परिवार के सदस्यों का भी कहना था। लेकिन फिर भी सच मनिये, पाठकों
। कुछ दिनों बाद ही 4 जुलाई 1997 को पाक्षिक समाचार पत्र ‘जीवन का लक्ष्य' और मात्र तीन दिन बाद ही 7 जुलाई 1997 को मासिक ‘शकुन्तला टाइम्स’ का शीर्षक
रजिस्टर्ड हेतु भारत सरकार के पास नियमानुसार आवेदन कर दिया। संजोग देखिए,
पाठकों! ‘शकुन्तला टाइम्स’ जिसका आवेदन संख्या 1202 था और ‘जीवन का लक्ष्य’
का आवेदन संख्या 1197 था। फिर मुझे 28 अगस्त 1997 को ‘शकुन्तला टाइम्स’ और
18 सितम्बर 1997 को ‘जीवन का लक्ष्य’ शीर्षक सत्यपित होकर मिलें, क्योंकि
‘जीवन का लक्ष्य’ की फाईल ‘रिश्वत’ जैसे मुद्दे में फंस गई थी।
जोकि मैं
कभी नहीं देने वाला था। मगर मेरी दीदी के नाम की पत्रिका का भारत सरकार
द्वारा सत्यपित पत्र पाकर मेरी हिम्मत और इरादा और बुलंद हो गया। मेरी
कल्पनाओं को मानों पंख लग गये। उसके बाद सारी-सारी रात काम करना और दिन में
प्रकाशन से संबंधित कार्य के लिए भागदौड़ करना व खाने-पीने का होश न रहना।
मेरी दिनचर्या बन गई थी। दस-बारह व्याक्तियों जितना कार्य स्वंय(अकेला)
करके भी थकान कभी महसूस नहीं की और अपने कार्य करने के ज़ूनून में पागल
होकर ‘सिरफिरा’ हो गया। फिर मैंने निर्णय लिया कि-अगर किसी भी कार्य की
शुरूआत करूँगा। उसे अपनी दीदी शकुन्तला जैन के नाम से ही करूंगा। मैने
‘जीवन का लक्ष्य’ की अक्टुबर 1997 में और ‘शकुन्तला टाइम्स’ की जनवरी 1998
में शुरूआत कर दी। यहां पर भी एक संजोग यह बना कि-बगैर किसी प्रकार की
‘रिश्वत’ दिये ही ‘शकुन्तला टाइम्स’ का भारत सरकार के समाचार पत्रों के
पंजीयक का कार्यालय से दिनांक 10 फरवरी 1998 को पंजीयन प्रमाण पत्र प्राप्त
हुआ और "जीवन का लक्ष्य" का भी पंजीयन प्रमाण पत्र दिनांक 12 सितम्बर 2002
में प्राप्त हुआ।

इन पांच सालों मे अनेक बाधाएं आई। कभी विज्ञापनदाताओं
द्वारा अपने विज्ञापन की धनराशि देने से इंकार करने पर आर्थिक समस्या और
कभी पारिवारिक समस्याओं के कारण प्रकाशन रोक देना भी पड़ा। मगर न कभी खुद
को बेचा और न कभी अपने सिद्धांतो से समझौता करने के लिए झुका। बस पाठकों इस
तरह अब मेरे हर कार्य की शुरूआत अपनी दीदी के नाम ‘शकुन्तला’ से होती है।
इसलिए आज मेरे ब्लॉग का नाम "शकुन्तला प्रेस ऑफ़ इंडिया प्रकाशन" और मेरी
विज्ञापन बुकिंग फर्म का नाम "शकुन्तला एडवरटाईजिंग एजेंसी" व "शकुन्तला
महिला कल्याण कोष" और फर्म "शकुन्तला प्रेस ऑफ़ इंडिया प्रकाशन" परिवार
द्वारा प्रकाशित समाचार पत्र/पत्रिकाओं का नाम "शकुन्तला टाइम्स",
"शकुन्तला सर्वधर्म संजोग" व "शकुन्तला के सत्यवचन" आदि में पहला शब्द
‘शकुन्तला’ ही रखा। जिनको बहन स्वर्गीय "शकुन्तला जैन" को समर्पित किया हुआ
है। पाठकों यहां पर विस्तार से उल्लेख करना महत्वपूर्ण था कि मेरी फर्मों
के नाम का पहला शब्द ‘शकुन्तला’ ही क्यो है, क्योंकि मेरी दीदी मेरे लिए
हमेशा प्रेरणास्त्रोत रही हैं और सदास्मणीय रहेगी। मैं उनके दिखाए
मार्गदर्शन पर चलते हुए कार्य करता रहूँगा।
-निष्पक्ष, निडर, आजाद विचार, अपराध विरोधी, स्वतंत्र पत्रकार, कवि व लेखक रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक
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