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बुधवार, 16 मार्च 2011

शकुन्तला प्रेस कार्यालय के बाहर लगा एक फ्लेक्स बोर्ड-2

 कल तीन-चार ब्लोगों पर कुछ दो-तीन पोस्ट पढ़ी. टिप्पणियाँ पोस्ट की, डिप्रेशन की बीमारी के चलते ज्यादा देर किसी चीज़ में ध्यान  नहीं लगा पता हूँ और मेरा विचार है कि-अच्छा लिखने के लिए अच्छा पढना या यह कहे अच्छा अध्ययन करना भी जरूरी होता है. पिछले कई दिन से दैनिक अखबार पढने में भी मन नहीं लग रहा है.ज्यादा कुछ लिखा नहीं है. इसलिए आज कुछ ब्लोगों पर की कुछ मुख्य टिप्पणियाँ  यहाँ पर प्रकाशित है.
 मुख्य टिप्पणियाँ
एक अनुभव:-काम, क्रोध, लोभ, मोह को छोड़ कर, स्वयं में स्थित होकर विचार करो,फिर कार्य करें.समाज से बुराई को मिटा ने लिए अपनी कोशिश शुरू कर दो. उसके बाद तो ईश्वर(जो एक है) भी उसकी मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहता है. मैंने अपनी पत्रकारिता के जीवन में अनेकों ऐसे कार्य किये. जब भी निस्वार्थ भावना से कोई भी कार्य दूसरों के लिए किया वो सफल हुआ है.जब भी अपने लिए वहीँ कार्य में शायद पैसों का मोह में आकर लोभ किया तब मुझे मुंह की खानी पड़ी है.उसके बाद तो अपने लिए कार्य न करके दूसरों के फायदे के लिए कार्य ज्यादा करता हूँ. अब पत्रकारिता के काफी साल हो चुके हैं. इसलिए मेरे स्वंय के कई कार्यों में कोई बाधा ही नहीं आती हैं.  

मेरा ऐसा ही एक यह अनुभव भी है कि-एक सहनशील इंसान तब बहुत ज्यादा टूट जाता है. जब उसे अपने अधिकारों के लिए अपने रिश्तेदारों (पत्नी, भाई, बहन, माँ-पिता आदि) के खिलाफ कोर्ट में विवाद दाखिल करना पड़ता है. इस पर कहा भी जाता हैं कि-"हमें तो अपनों ने  ही लुटा,गैरों में कहाँ इतना दम था, मेरी किश्ती वहीँ डूबी, जहाँ पानी कम था". क्या ऐसी लड़ाई में फिर भगवान श्रीकृष्ण के "गीता" में दिए उपदेश का पालन करना उचित होगा? अगर इसके लिए (कोर्ट में मुकद्दमा करना और हर सच्चाई से कोर्ट को अवगत करना) किसी सभ्य व्यक्ति को अपने धर्म व संस्कारों को भी भूलना पड़े तब क्या यह उचित होगा?  

श्रीमती विनीता शुक्ला जी, आपकी कविता "माँ मुझे बैसाखियाँ मत दो" पढ़कर सिक्के का एक पहलू पता चला फिर टिप्पणियों में डॉ. जमाल जी की कही हुई "माँ, क्यों दिलाई तुमने शिक्षा?" पढ़कर सिक्के का दूसरा पहलू पता चला. उसके बाद आपकी डॉ. जमाल जी को सम्बोधित टिप्पणी पढ़कर बहुत ख़ुशी हुई. आपके विचारों से सहमत भी हूँ. लेकिन कोई भी औरत अगर सही रास्ते पर चलकर आगे बढे. मात्र कामयाबी के लिए अनैतिक कार्य न करें. मैंने कई ब्लोगों पर अपशब्दों का प्रयोग देखा है. क्या पाठकों व लेखकों को किसी भी मुद्दे पर एक स्वस्थ बहस नहीं करनी चाहिए? पाठक अपना अनुभव व तर्क रखे और लेखक अपना अनुभव व तर्क रखे. मगर इसमें अपशब्दों का स्थान नहीं होना चाहिए

बड़े भाई अख्तर साहब जी, आपने काफी विश्लेषण किया है और काफी खोजबीन करके बता दिया कि-आप में खोजी पत्रकार बनने के गुणों का भंडार है और आपका यह नाचीज़ छोटा भाई राजस्थान के कोटा जिला से आपको शकुन्तला प्रेस ऑफ़ इंडिया प्रकाशन परिवार के इन्टरनेट संस्करण के लिए "अवैतनिक" मुख्य संवाददाता पद को सुशोभित करने को आमंत्रित कर रहा हूँ. आपमें बहुत ज्यादा खूबी है जो आपने मेरे "जीवन का लक्ष्य" को अपने अनुभव से पहचान लिया कि-मैं पत्रकारिता से समाज को बदल दूंगा. काश! ऐसा हो जाये तो मेरा जीवन सफल हो जायेगा. भारत माता और अपनी माताश्री का शायद कुछ कर्ज उतार सकूँ, वैसे इसके लिए तो मेरे सात जन्म भी कम है.

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